महफिले शायरी: *****उनके शहर से हम चले जब जाएंगे*****
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मेरा कॉलम
शुभ प्रभात
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—–जाली लाईसेंस—–कविता
घर सा मन्दिर बनाकर
उसमे आदमी सी मूर्ति रखकर
उसके पास जाकर
फल-फूल
और पैसा चढाकर
हम
ईश्वर को भी
साकार
वासना में लिप्त हुआ
देखना चाहते हैं
और
इस तरह
हम
ईश्वर नहीं
अपनी वासना पूजते हैं
वासना की देवी
हमसे प्रसन्न होकर
हमे
वरदान देती है
एक
लाईसेंस
वासना पालने का
और यह लाईसेंस
किसी भी
पाप करने के लिए
वैलिड होता है
और
ईश्वर के दरबार से
जब हमें
उस पाप की सजा
सुनायी जाती है
तो हम
सिहर उठते हैं
और
ताकते रह जाते हैं
वह जाली लाईसेंस
जिस पर
ईश्वर की कोई
मुहर नहीं लगी होती !
—————————— (प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह “ज़मीन से जुड़े आदमी का दर्द” से उद्धृत की गयी है –अश्विनी रमेश )
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—खोज रहा हूँ—कविता
खोज रहा हूँ………
‘शब्द’
कैसे, कब और क्योँ
अर्थ बनकर
आहत कर
घाव बनते हैं
और
दर्द बनकर
हवा हो जाते हैं
शून्य में…….
खोज रहा हूँ….
शब्द
कब , कैसे और क्योँ
‘अर्थ’ बनकर
भयभीत
आतंकित कर
शक्तिशाली , बहशी और क्षीण बनाकर
हवा हो जाते हैं
फिर शून्य में…….
खोज रहा हूँ
शब्दों को
ये सब
अर्थ बनने से पहले ही
पहचान सकूँ उनकी गति को
और ठहरा दूँ उनको हवा में ही
शून्य समझकर
खोज रहा हूँ……
इन शब्दों को
रूपान्तरित , विलीन करने वाली
संगीतमयी , लयमयी उस हवा को
जो शब्दायमान होकर भी
अन्तः शून्य में
जीवन भरती है
——————————————- (प्रस्तुत कविता मेरे कविता संग्रह ‘जमीन से जुड़े आदमी का दर्द से उद्धृत की गयी है’—अश्विनी रमेश )
Posted in साहित्य---कविता पक्ष
सामाजिक परिवर्तन की कल्पना की भ्रममूलक भूल आखिर क्योँ कर बैठतें हैं चिंतनशील लोग—दार्शनिक एवं जीवनोपयोगी लेख !
यह प्रकृति ,का नियम है कि कोई भी व्यक्ति (इस शब्द में सभी प्राणी शामिल हैं) अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है !यही नहीं यदि किसी व्यक्ति को कहीं शरीर में दर्द हो रहा है तो भी उसे अकेला ही सहन करना होता है और इसीलिए कहा गया है कि. “जो तन लागे सो तन जाने” और अंग्रेज़ी में कहा गया कि, “only the wearer can know where the shoe pinches”! यानि व्यक्ति को यदि कोई कष्ट या दुःख है,तब भी उसको यह अकेला ही झेलना है,और यदि कोई सुख है उसको भी वह अकेला ही भोग सकता है !सुख और दुःख को वास्तव में बाँटा नहीं जा सकता क्योंकि ये वस्तु नहीं अनुभूतियाँ हैं!
अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति ही एक वजूद है ! यही कारण है कि प्रकृति-नियमों पर आधारित कर्मसिद्धांत के आधार पर ही किसी अच्छे कर्म को पुरस्कार (reward) और किसी बुरे कर्म को दंड (Punishment) का विधान प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) में स्वाभाविक व स्वचालित रुप से कार्य करता है !
ऋषि वाल्मीकि और महात्मा बुद्ध के चेतना जागरण जैसे कई ऐसे घटित उदाहरण हैं, जिनसे सहज ही यह प्रमाणित हो जाता है कि कर्मानुसार और उसके लिए निर्धारित मापदंड के आधार पर ही चेतना जागृत होती है यानि ज्ञानप्रकाश के उपरांत लगातार कर्म-शोधन और अच्छे कर्म का क्रम बना रहता है !
अब आपके मन में यह प्रश्न भी उत्पन्न हो रहा होगा कि यदि व्यक्ति का ही वजूद है तो फिर समाज क्योँ और किसे कहा गया है ? एक व्यक्ति के एक दूसरे व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से तात्कालिक अथवा नैसर्गिक या दीर्घकालिक सम्बन्ध अथवा संबंधों को ही समाज का नाम दिया गया है ! यहाँ तक कि समाज पशु, पक्षियों मै भी विद्यमान पाए गए हैं !
उपरोक्त तात्कालिक एवं नैसर्गिक अथवा दीर्घकालिक दोनों ही श्रेणियों के सम्बन्धों का आधार मनोवैज्ञानिक अथवा शारीरिक अथवा दोनों ही आवश्यकताएं होती हैं !जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी सामूहिक हित (common interest ) के लिए इकटठे होतें हैं तो यह सम्बन्ध तात्कालिक (temporary) होता है ! जैसे ही यह हित पूरा होता है अथवा अधूरा रहकर भंग होता है, वैसे ही यह सम्बन्ध भी भंग हो जाता है ! ऐसे सम्बन्ध का उदाहरण- स्वरुप है पानी की सुचारू व्यवस्था हेतु गांववासियों द्वारा की गयी नारेबाजी और ज्ञापन ! नैसर्गिक अथवा दीर्घकालिक श्रेणी के सम्बन्धों में ब्लड-रिलेशनशिप,मेरिटल-रिलेशनशिप और सची और परखी हुई मित्रता जैसे सम्बन्ध आतें हैं जो कि जीवन में अधिक स्थायी महत्व रखतें हैं !
उपरोक्त इन्ही सम्बन्धों के आधार पर हम समाज शब्द कह देते हैं जबकि समाज का वास्तविक अस्तित्व नहीं,अस्तित्व तो व्यक्ति का है !वह इसलिए क्योंकि समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कर्म भिन्न है व् कर्मस्तर भिन्न है और यह भिन्नता भिन्न चेतना स्तर के कारण है ! जितना एक व्यक्ति का चेतना स्तर होगा,उस स्तर तक ही वह कर्म करेगा !
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि जब हर व्यक्ति का कर्मस्तर भिन्न है जोकि भिन्न चेतना स्तर पर आधारित है,तो जब कई चिंतनशील व्यक्ति समाज परिवर्तन की बात करतें हैं तो उनकी सोच व्यवहारिक न होकर केवल भ्रममूलक अथवा कल्पनामूलक (An utopian idea ) ही कही जा सकती है !
जब श्रीकृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में कर्म का उपदेश देतें हैं तो वे यह उपदेश केवल अर्जुन को ही क्योँ दे रहें हैं !इसका सीधा अर्थ है कि अर्जुन को कर्मक्षेत्ररुपी कुरुक्षेत्र में इस बात का पात्र माना गया कि वह युद्ध को विजय की स्थिति तक पहुंचा सकता है ! कहने का अभिप्राय यह कि अपेक्षित कर्म की अपेक्षा हम केवल उसी व्यक्ति से कर सकते हैं जो जिसके योग्य हो यानि जिसका चेतना का स्तर ज्ञान ग्रहण करने योग्य होगा उसी पात्र व्यक्ति को ही ज्ञान का उपदेश काम कर सकता है ! उदाहरणार्थ श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन—“ जिससे अर्जुन को प्रेरित किया गया, आज भी तो है ! परन्तु इतनी सदियों बाद भी, कितने लोग हैं जो व्यवहारिक रुप से इसका सही अर्थ समझते हैं और फिर कितने लोग ऐसे हैं जो इसको अपने जीवन में उतारते हैं ! बिलकुल थोड़े !ऐसा क्योँ ? ऐसा इसलिए कि जब तक एक व्यक्ति का चेतना स्तर जागृत नहीं होता, तब तक वह ज्ञान का पात्र नहीं होता यानी तब तक उसे ज्ञानरूपी प्रकाश नहीं हो सकता ! इसलिए जब कोई चिन्तक समाज परिवर्तन की बात करता है तो वह यह भूल जाता है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कर्मस्तर और चेतनास्तर भिन्न है !समाज में सबसे निकट सम्बन्ध परिवार में भी हर व्यक्ति का कर्मस्तर और चेतनास्तर सदैव भिन्न होता है !
अतः साररूप में यह कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को परिवर्तित नहीं कर सकता ! कोई भी व्यक्ति जब तक ज्ञान का पात्र नहीं हो जाता तब तक उसमे परिवर्तन हो भी नहीं सकता !इसलिए एक व्यक्ति की चेतना तभी जागृत होगी जब उसका प्रत्येक कर्म विवेकशील होकर शुद्ध होता चला जाएगा ! यह एक सत्य है कि तप के बिना सत्य को नहीं जाना जा सकता और सत्य जाने बिना ज्ञान नहीं हो सकता यानि सत्य और ज्ञान एक तरह पर्यायवाची ही हैं ! तप का अर्थ सत्य जानने के लिए उठाए गए कष्ट हैं ! जब किसी व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है तो उसमे स्वतः ही परिवर्तन आ जाता है
और फिर उसमे प्रकृति के नियमों की समझ आ जाने से, अहम स्वतः ही नष्ट हो जाता है! इस प्रकार उस ज्ञानप्राप्त व्यक्ति के प्रत्येक कार्य में निष्कामभाव और शुद्धता आती है ! उस अवस्था में ज्ञानयुक्त व्यक्ति के लिए यह समझना कठिन नहीं होता कि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति विहित नियमों के नियंत्रण में कार्य करता है, और अच्छे और बुरे कर्म का पुरस्कार और दंड भी क्रमशः प्रकृति के नियमों में स्वाभाविक रुप से ही समाविष्ट है !
सामाजिक नियमों में इसलिए पूर्णता नहीं हो सकती क्योंकि उनको व्यक्ति ही बनाते हैं, और व्यक्ति ही उनपर निर्णय करतें हैं और व्यक्ति ही उनको लागू करते हैं ! इसलिए व्यक्तियों की बनायी हुई व्यवस्था में वह स्वाभाविक और निष्पक्ष न्याय नहीं हो सकता जो प्रकृति के बनाए नियमों द्वारा होता है !
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जब अपने कर्म में शुद्धता लाएगा तो उसके लिए स्वयं ही जीवन के वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी !
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समाज परिवर्तन की परिकल्पना क्योंकि व्यवहारिक नहीं , इसलिए ऐसी कल्पना वही लोग करते हैं जो अभी चेतना के ऊच अंश (higher degree) तक नहीं पहुंचे यानी ज्ञानप्रकाश से ही सारे भ्रम टूटते हैं ! इसलिए ज्ञानप्रकाश ही जीवन के वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति है !
——अश्विनी रमेश !
Posted in दार्शनिक एवं अध्यात्मिक पक्ष
———वृक्ष की आत्मकथा—-कविता (आज ५ जून,२०११ विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष-रुप से ब्लॉग पर अपलोड की गयी !
इस अल्प जीवन में
यदि तुम
कुछ क्षणों तक भी
सजीव होकर भी
मेरी तरह
स्थिर हो पाते
तो तुम्हे
जड़ और चेतन
संवेदन और असंवेदनता का
ज्ञान
उन अनुभवपूर्ण
कहानियों को सुनकर तो होता
जो इतिहास की एक
पुस्तक में संचित न होकर
पीढ़ी दर पीढ़ी
सुनायी जाती रहीं हैं
और जिनकी सनातनता
आज भी उस सत्य की तरह
बनी हुयी है
जो सदैव
हमारी आँखों में तैरता है
क्या तुमने
वह वट वृक्ष नहीं देखा
जिसकी शीतल छाया तले बैठकर
गौतम
बुद्ध
हो गए थे
वे खड़े वृक्ष नहीं देखे
जहाँ
थके हारे
पशु
पक्षी
कीड़े-मकोड़े
से
मानव तक
विश्राम किया करते हैं
तुमने
अपनी
दादी
और
माँ को
रोज
पशुओं के साथ
जंगल से घर लोटते समय
पीठ पर
लकड़ी और चारा
लाते तो
देखा ही होगा
चूल्हे से लेकर
शमशान तक
तुम्हारे लिए
इस जलने वाले
वृक्ष ने
क्या तुम्हे
अब इतना
असंवेदनशील और जड़
बना दिया है
कि तुम चेतनता की उस
सीमा तक
पहुँच गए हो
जहाँ तुम्हे
हर वस्तु को
अपनी तरह
अस्थिर
और अनिश्चित
कर देना है !
—————————(प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह ,”जमीन से जुड़े आदमी का दर्द “से उद्धृत की गयी है—-अश्विनी रमेश )
Posted in Uncategorized | Tags: कविता
———वृक्ष की आत्मकथा—-कविता (आज ५ जून,२०११ विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष-रुप से ब्लॉग पर अपलोड की गयी !
इस अल्प जीवन में
यदि तुम
कुछ क्षणों तक भी
सजीव होकर भी
मेरी तरह
स्थिर हो पाते
तो तुम्हे
जड़ और चेतन
संवेदन और असंवेदनता का
ज्ञान
उन अनुभवपूर्ण
कहानियों को सुनकर तो होता
जो इतिहास की एक
पुस्तक में संचित न होकर
पीढ़ी दर पीढ़ी
सुनायी जाती रहीं हैं
और जिनकी सनातनता
आज भी उस सत्य की तरह
बनी हुयी है
जो सदैव
हमारी आँखों में तैरता है
क्या तुमने
वह वट वृक्ष नहीं देखा
जिसकी शीतल छाया तले बैठकर
गौतम
बुद्ध
हो गए थे
वे खड़े वृक्ष नहीं देखे
जहाँ
थके हारे
पशु
पक्षी
कीड़े-मकोड़े
से
मानव तक
विश्राम किया करते हैं
तुमने
अपनी
दादी
और
माँ को
रोज
पशुओं के साथ
जंगल से घर लोटते समय
पीठ पर
लकड़ी और चारा
लाते तो
देखा ही होगा
चूल्हे से लेकर
शमशान तक
तुम्हारे लिए
इस जलने वाले
वृक्ष ने
क्या तुम्हे
अब इतना
असंवेदनशील और जड़
बना दिया है
कि तुम चेतनता की उस
सीमा तक
पहुँच गए हो
जहाँ तुम्हे
हर वस्तु को
अपनी तरह
अस्थिर
और अनिश्चित
कर देना है !
—————————(प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह ,”जमीन से जुड़े आदमी का दर्द “से उद्धृत की गयी है—-अश्विनी रमेश )
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—-शेर—-
भूल कर भी तुम कभी काँटों से नफरत न करना यारब
ये तो हमारी महब्बत के काबिल हैं जो फूलों की हिफाज़त करते हैं
—अश्विनी रमेश (शेर जो अभी अभी लिखा गया और पहले फेसबुक पर अपलोड किया गया)
Posted in शायरी मेरी कलम से
——डरावना गांव———कविता
गांव के पशु
खुलेआम बाजारी सडकों पर
घूमने लगें हैं
आदमी की तरह
सुनसान गांव में
प्रवेश करते हुए
मुझे डर लग रहा है
अब तो…………….
गांव उजड़ रहा है
जहर पचाने वाली
सुलगती मिटटी
पैदा कर रही है
काले और पीले पतों वाले पौधे
जो केवल
जहर पीकर ही
पल सकतें हैं
बढ़ सकतें हैं
और
जिंदा रह सकतें हैं
और
पैदा कर सकतें हैं
केवल
जहरीला फल
जिसके जहरीले स्वाद से
आदमी की नस नस में
भर गया है ज़हर
और
घर की अलमारियों में
घी के डिब्बों की जगह
सज गयीं हैं
छोटी बड़ी बोतलें
बच्चे
बूढ़े
और
औरतें
सब
बन गए हैं
केवल
एक अन्तरहीन पीढ़ी
जो केवल
आज और अब को
अपना जीवन दर्शन मानकर
चिन्तित हो उठे हैं
धूप से तपती
नंगी पहाड़ियां
चटक रही हैं पत्थर
तलहटी के सूखे
तालाबों को भरने के लिए
तो ऐसे में
मुझे क्या डर नहीं लगेगा ?
……………………………………………(प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह, “जमीन से जुड़े आदमी का दर्द”,से उद्धृत की गयी है –अश्विनी रमेश)
Posted in साहित्य---कविता पक्ष, Uncategorized
इस बेहतरीन तकनीक वाले ब्लोग पर उत्साही व मेहनती मेहमान ब्लोग्गर्स का स्वागत है !
मित्रों,
आप में से जो भी साहित्य की किसी भी विधा में उत्साह और शौक रखता हो और साहित्य सृजन के लिए सतत प्रयासरत रहने का अरमान रखता हो उसका इस ब्लॉग पर मेहमान ब्लोग्गर के रुप में हार्दिक स्वागत है ! अपनी मंशा आप मेरे फेसबुक वाल पर इसी लिंक के माध्यम से सन्देश द्वारा प्रकट
कर सकतें हैं अथवा यहां भी आप यह मंशा प्रकट कर सकते हैं !
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