पता नहीं
अचानक एक दिन
कैसे मैं
ईश्वर के मन्दिर में
प्रवेश कर गया
वहां
नग्न
विमूढ़
और
भावशून्य निर्जीव प्रतिमा देखते ही
उदास मन से सोचा
क्या यही ईश्वरीय रूप है
फिर एक नज़र देखा
प्रतिमा
सुन्दर
और उजली लगी
मैंने फिर स्वयं से पूछा
यही ईश्वरीय रूप है
फिर देखा
प्रतिमा
जैसे अट्टहास कर रही हो
तुम
भक्त के चोले में लिपटे
वह अहंकारी और मोही पुरुष नहीं हो
जो मेरा यही रूप
देखना चाहते हो
इतना सोचते ही
मैं
भाव विह्वल हो गया
मैंने देखा
सजीव हुई प्रतिमा की
डबडबायी हुई आँखों से
जैसे आँसू टपक रहें हों
मैंने
मन ही मन
कहा
बस——
मैं तुम्हारा
यही रुप
देखना चाहता था
और मैंने अब यह जान लिया
कि
मन और मन्दिर में
तुम्हारा
यही एक
पूजनीय रुप है
——————– (प्रस्तुत कविता, मेरे काव्य-संग्रह-“जमीन से जुड़े आदमी का दर्द”, से उद्धृत की गयी है–अश्विनी रमेश)
अपने मिटटी की महक और यादों को अति सुंदरता से संजोया है|
By: Mukesh Negi on May 28, 2011
at 2:15 am
धन्यवाद नेगी जी! आप इस ब्लोग पर सारी कविताएँ पड़ें,आपको बराबर अच्छी लगेंगी !
By: ashwiniramesh on May 28, 2011
at 4:57 pm