मेरी माँ ने
नही सीखा
काफ़ीहाउस में
घंटो बैठकर
काफी की चुस्कियों के साथ
भावुकता को पी जाना
और निश्चल होकर
सामने दिवार पर
टंगी घढ़ी में
समय की सुई के
चक्कर को ताकते रहना
उसने तो
हर पल
अनुभव किया है
लोहे और मिटटी के
संसर्ग से उत्पन
पसीने की धार की
गति का अबाध
बहते रहना
आधा पी जाना
और
शेष मिटटी में निचुड़ जाना
और
मिटटी के लिए
मिटटी चाटते और सूंघते
मिटटी और लोहे से खेलते
पलते
और
बढ़ते
शिशु को जनना
और माँ ने
एक पहाड़ी से
दूसरी पहाड़ी का
सफर तय करते
महसूस किया है
भारट्ठे* से झुकी हुई
पीठ को देखकर
पहाड़ियों का
आदर से झुक जाना
और
उबड-खाबड़ पगडंडियों का
छोटा हो जाना
बस
मेरी माँ ने
यही सीखा है !
………………..
भारठे* अर्थ –पीठ पर के बोझे !
——————————————-(प्रस्तुत कविता मेरे काव्य-संग्रह –“जमीन से जुड़े आदमी का दर्द”से उद्धृत की गयी है-अश्विनी रमेश )
my grand ma!!!
By: Tikshu on May 26, 2011
at 12:07 pm