इस अल्प जीवन में
यदि तुम
कुछ क्षणों तक भी
सजीव होकर भी
मेरी तरह
स्थिर हो पाते
तो तुम्हे
जड़ और चेतन
संवेदन और असंवेदनता का
ज्ञान
उन अनुभवपूर्ण
कहानियों को सुनकर तो होता
जो इतिहास की एक
पुस्तक में संचित न होकर
पीढ़ी दर पीढ़ी
सुनायी जाती रहीं हैं
और जिनकी सनातनता
आज भी उस सत्य की तरह
बनी हुयी है
जो सदैव
हमारी आँखों में तैरता है
क्या तुमने
वह वट वृक्ष नहीं देखा
जिसकी शीतल छाया तले बैठकर
गौतम
बुद्ध
हो गए थे
वे खड़े वृक्ष नहीं देखे
जहाँ
थके हारे
पशु
पक्षी
कीड़े-मकोड़े
से
मानव तक
विश्राम किया करते हैं
तुमने
अपनी
दादी
और
माँ को
रोज
पशुओं के साथ
जंगल से घर लोटते समय
पीठ पर
लकड़ी और चारा
लाते तो
देखा ही होगा
चूल्हे से लेकर
शमशान तक
तुम्हारे लिए
इस जलने वाले
वृक्ष ने
क्या तुम्हे
अब इतना
असंवेदनशील और जड़
बना दिया है
कि तुम चेतनता की उस
सीमा तक
पहुँच गए हो
जहाँ तुम्हे
हर वस्तु को
अपनी तरह
अस्थिर
और अनिश्चित
कर देना है !
—————————(प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह ,”जमीन से जुड़े आदमी का दर्द “से उद्धृत की गयी है—-अश्विनी रमेश )
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