घर सा मन्दिर बनाकर
उसमे आदमी सी मूर्ति रखकर
उसके पास जाकर
फल-फूल
और पैसा चढाकर
हम
ईश्वर को भी
साकार
वासना में लिप्त हुआ
देखना चाहते हैं
और
इस तरह
हम
ईश्वर नहीं
अपनी वासना पूजते हैं
वासना की देवी
हमसे प्रसन्न होकर
हमे
वरदान देती है
एक
लाईसेंस
वासना पालने का
और यह लाईसेंस
किसी भी
पाप करने के लिए
वैलिड होता है
और
ईश्वर के दरबार से
जब हमें
उस पाप की सजा
सुनायी जाती है
तो हम
सिहर उठते हैं
और
ताकते रह जाते हैं
वह जाली लाईसेंस
जिस पर
ईश्वर की कोई
मुहर नहीं लगी होती !
—————————— (प्रस्तुत कविता मेरे काव्य संग्रह “ज़मीन से जुड़े आदमी का दर्द” से उद्धृत की गयी है –अश्विनी रमेश )
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